कानपुर। साढ़े चार करोड़ की परियोजना से ग्रीनपार्क स्टेडियम के नए हॉस्टल में करवाए जाने वाले छोटे-छोटे कार्यों में भी अब तो ठेकेदार की नीयत खराब हो रही है और वे इसमें भी अपना कमीशन निकालने से नहीं चूक रहे हैं। गौरतलब है कि यूपी प्रोजेक्ट कॉरपोरेशन की एक यूनिट को इन कार्यों की जिम्मेदारी सौंपी गई है। जब शहर के डीएम ने ही कामों में गड़बड़ी पकड़ी तो इस कॉरपोरेशन के अधिकारी मासूम बन कर चेहरा लटका ऐसे खड़े हो गए कि ठेकेदार क्या कर रहा था जैसे उन्हें कुछ पता ही न हो। शुक्रवार को जब जिलाधिकारी जितेन्द्र प्रताप सिंह ग्रीनपार्क स्टेडियम में खिलाड़ियों के लिए बनाए जा रहे 80 बेड के छात्रावास का अचानक निरीक्षण करने पहुंचे तो चौंक पड़े।
डीएम के निरीक्षण के दौरान पाया गया कि छात्रावास में कराए जाने वाले कई कार्यों की गुणवत्ता मानक के अनुरूप है ही नहीं। जब डीएम को हॉस्टल के कमरों में लगाई गईं कबर्ड की थिकनेस कम लगी तो उनका माथा ठनका। ताज्जुब यह है कि कार्यों के दौरान होने वाली गड़बड़ियों को न तो इंजीनियरों ने और न ही प्रोजेक्ट मैनेजर ने देखा। या तो ठेकेदार के काम पर निगरानी नहीं रखी गई या यह नहीं सोचा गया कि कबर्ड की थिकनेस भी कोई अफसर नपवा लेगा। डीएम ने साथ चल रहे अधिकारियों से मौके पर ही इसे चेक करने को कहा तो कबर्ड की थिकनेस 25 एमएम की बजाए सिर्फ 20 एमएम ही निकली, जबकि मानकों में साफ लिखा है कि यह 25 एमएम की होनी चाहिए। डीएम ने जब कार्यों में गड़बड़ियां पकड़ीं तो तुरंत एक जांच कमेटी गठित करने के निर्देश जारी कर दिए।
बात सिर्फ कबर्ड की गुणवत्ता खराब होने तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि हॉस्टल के कमरों के डोरपैनल में लगी कुंडियां और हैंडल भी खराब गुणवत्ता के पाए गए। इस पर जिलाधिकारी ने नाराजगी जताते हुए पूछा कार्यों की गुणवत्ता कार्यदायी संस्था द्वारा क्यों नहीं देखी गई? सकपकाए प्रोजेक्ट मैनेजर ने जब कुंडी आदि बदलवा देने को कहा तो डीएम ने पूछा कि यह गड़बड़ी तो पहले ही पकड़ी जानी चाहिए थी, आपने अभी तक क्या देखा और पूर्व में थर्ड पार्टी निरीक्षण हुए तो उनके द्वारा क्या देखा गया?
डीएम का पारा अब तक गर्म हो चुका था। उन्होंने जब पूछा कि क्या ठेकेदार को कोई नोटिस दिया गया, तो प्रोजेक्ट मैनेजर ने कहा कि कोई नोटिस नहीं दिया गया। डीएम ने पूछा कि सुपरवाइजरी इंजीनियरों ने भी गुणवत्ता का ध्यान क्यों नहीं रखा, जबकि उनकी तो यही जिम्मेदारी होती है। इसका परियोजना प्रोजेक्ट मैनेजर के पास कोई जवाब नहीं था। इसके बाद इन्हीं सब बिंदुओं पर डीएम ने जांच कमेटी का गठन करने के निर्देश दिए। यह परियोजना मार्च 23 में पास हुई थी, जबकि जून 23 में इसका काम शुरू हुआ था। इसे जून 24 में खत्म हो जाना चाहिए था। अब खराब गुणवत्ता के कार्यों को फिर से दुरुस्त करने में समय लगेगा तो यह प्रोजेक्ट और भी लेट हो जाएगा।
यकीन नहीं होता कि यह उस ग्रीनपार्क हॉस्टल की दशा है, जिसे कभी ज्ञानेन्द्र पांडे और मोहम्मद कैफ जैसे खिलाड़ियों ने अपने कॅरिअर की इंटरनेशनल उड़ान के लिए रन वे के रूप में इस्तेमाल किया था। लेकिन यह गुजरे जमाने की बात हो चुकी है। अब तो यहां से टैलेंट निकलना लगभग बंद ही हो चुका है। कभी रणजी टीम को हॉस्टल की टीम कहा जाता था। लेकिन अब किसी बोर्ड ट्रॉफी तक भी कोई खिलाड़ी पहुंच जाए तो उसे बड़ी उपलब्धि मान लिया जाता है। कभी मोहम्मद कैफ के पिता ने लखनऊ और कानपुर दोनों जगह सलेक्शन होने पर लखनऊ की बजाए ग्रीनपार्क हॉस्टल को बेहतर मानते हुए उन्हें यहां क्रिकेट सीखने के लिए भेजा था। रणजी टीम की सप्लाई लाइन माने जाने वाले ग्रीनपार्क में ऐसा क्या हो गया कि अब अभिभावकों में भी अपने बच्चों को ग्रीनपार्क हॉस्टल भेजने की दिलचस्पी खत्म हो गई?
चलिए हम बताते हैं। यहां खिलाड़ियों को हॉस्टल में मिलने वाली सुविधाएं तो लगातार बदत्तर होती ही गईं प्रशिक्षण का स्तर भी गिरता चला गया। अब स्पोर्ट्स अफसर कोचिंग की बजाए दिन भर अफसरी करते हैं, जबकि पहले क्रीड़ा अधिकारी ही नहीं बल्कि क्षेत्रीय क्रीड़ा अधिकारी भी खिलाड़ियों के प्रक्षिक्षण के दौरान हर खिलाड़ी की मॉनीटरिंग करते थे। लेकिन पिछले कुछ सालों में यह माहौल बदल गया। अब इस स्थाई टेस्ट सेंटर में तैनाती के दौरान क्रिकेट कोच कॉलर खड़े कर सिर्फ मौज मस्ती करते रहते हैं। उनका ध्यान अपने मूल काम से भटक चुका है। न ग्रीनपार्क और न ही निदेशालय से कभी कोई अफसर इनका रिपोर्ट कार्ड देखने या यह पूछने की जहमत उठाता है कि आपने कितने खिलाड़ियों को रणजी ट्रॉफी या बोर्ड की अन्य ट्रॉफियों की टीमों तक पहुंचाया।
नतीजा यह निकला कि खेल अफसरों की दिलचस्पी भी खिलाड़ियों को प्रशिक्षण और नेट पर उनकी कमजोरी बताने के बजाए अन्य कामों में ज्यादा दिखने लगी। आप किसी भी समय पहुंच जाइये स्टेडियम, वे नीचे के स्टाफ के साथ एक दूसरे अफसरों की कानाफूसी, हॉस्टल की मेस के लिए होने वाली खरीदारी, खेल की दुकानों से आने वाली सामग्री, आरएसओ ने किस कागज पर साइन किया किस पर नहीं, कौन अफसर कहां जा रहा है, कहां से आ रहा है, प्रोत्साहन समिति से कितना कहां लग रहा है, इसकी जानकारी जुटाने में ज्यादा टाइम पास होता है। इतना ही नहीं हर बात निदेशालय अपने आकाओं तक पहुंचाकर अपने नंबर बढ़वाने में इनकी तत्परता तो देखते ही बनती है। मजाल है कि कभी हॉस्टल की परफॉर्मेंस पर बात करने का समय भी निकल पाए।
असल में ग्रीनपार्क अब एक दुधारू गाय बन चुका है, जहां अफसर ज्यादा से ज्यादा दिनों तक रहकर अपनी रिटायरमेंट लाइफ बेहतर करना चाहते हैं। कोई सख्त डीएम आ गया तो भले ही खेल पर फोकस हो, अन्यथा इनकी गंगा में ऐसे ही खुद के विकास का पानी तेज रफ्तार से बहता रहता है। जब कर्ताधर्ताओं को ही ग्रीनपार्क की फिक्र नहीं तो यहां पर होने वाले कार्यों की जिम्मेदारी उठाने वाले विभागों को क्यों फिक्र होने लगी।
सितम्बर-अक्टूबर में भारत-बांग्लादेश मैच के दौरान पूरा विश्व देख ही चुका है कि किस तरह बारिश ने छतें टपकाई थीं। ड्रेसिंग रूम, रैफरी रूम और बाउंड्री के पास कैसे पानी जमा रहा था। मैच के दौरान और मैच के बाद कुछ दिन दिखाया गया कि दौड़ भाग में कोई कमी नहीं है लेकिन आज पता कर लीजिए कि ड्रेनेज सिस्टम ठीक करवाने की फाइल कितनी बढ़ी और काम कब से शुरू होगा, किसी के पास कोई सही जवाब नहीं होगा। मैच खत्म किस्सा भी खत्म।
अब ये परेशानियां तब याद आएंगी जब फिर कोई मैच आवंटित होगा और बीसीसीआई की टीम दौरा करने के बाद अपनी रिपोर्ट में लिखेगी कि यहां कुछ भी नहीं बदला है, अत: मैच कराने लायक स्थितियां नहीं हैं। फिर अखबारबाजी शुरू होगी। कोई बीसीसीआई उपाध्यक्ष राजीव शुक्ला को दोषी ठहराएगा तो कोई नौकरशाही को और फिर मैच किसी अन्य सेंटर को शिफ्ट कर दिया जाएगा। लेकिन यहां कुछ नहीं बदलेगा, बस ऐसे ही चलता रहेगा। कोई खेल प्रेमी डीएम या कमिश्नर आ जाता है तो जरूर कुछ दिन ग्रीनपार्क को अपनी खैर खबर रखने वाला मिल जाता है, अन्यथा तो बस ऐसे ही चलता रहता है। बस यही मनाइये कि ऐसे अफसर इस शहर को मिलते रहें।