यूपीसीए की इस महाभारत में कितने दुर्योधन ?

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वीनू मांकड़ ट्रॉफी में मिली टीम चयन में बंटवारे की सजा

कानपुर। ‘अब ये लड़ाई आर-पार की है, बरसों मैंने तलवार पर धार दी है, जीतना-हारना मेरा मकसद नहीं, बात मेरा रास्ता रोकते चार की है।’

कुछ ऐसी ही स्थिति यूपीसीए में भी है। कौरवों और पाडवों के बीच हुई महाभारत 18 दिनों तक तक चली थी लेकिन इसके बाद एक पक्ष की जीत के रूप में परिणाम निकल आया था। लेकिन उत्तर प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन की महाभारत का अंत ही नहीं दिख रहा है।

यूपीसीए के खिलाफ कई मामले कोर्ट में हैं। कहीं तो यह लड़ाई रसूख की है और कहीं क्रिकेटरों के भविष्य को लेकर चल रही है। खासकर कुछ विशेष जिलों से ही विभिन्न आयुवर्ग में आने वाले खिलाड़ियों को लेकर संघ में ही एक धड़ा विरोध कर रहा है। लेकिन इस लड़ाई में पिस रही है गरीब प्रतिभा। विरोध इस बात का है कि हर जिले के प्रतिभावान खिलाड़ियों को मौका नहीं मिल पा रहा, जबकि सहारनपुर, मेरठ और गाजियाबाद के टैलेंट को ही आगे बढ़ाने का काम किया जा रहा है। वीनू मांकड़ ट्रॉफी में यूपी की हरियाणा के हाथों हुई हार इसी आपसी फूट का नतीजा है, क्योंकि टीमों में टैलेंट कम है सिफारिशी खिलाड़ी ज्यादा खेल रहे हैं। जो टैलेंट है वह मैदान से दूर कहीं सिसक रहा है, क्योंकि उसके पास टैलेंट को छोड़ न तो पैसा ही है और न सिफारिश।

पूर्वांचल के जिलों का भी यही दर्द है। उनका आरोप है कि पूर्वांचल की क्रिकेट प्रतिभाओं को लम्बे समय से चांस नहीं मिल रहा है। इन जिलों से यूपीसीए के कुछ पदाधिकारियों पर चयन में भेदभाव करने के आरोप लगाए जा रहे हैं। अंदर की खबर यह है कि यूपीसीए मुखिया भी अब अपने लोगों के काम के तौर तरीकों से परेशान हैं।

वे कई बार इनकी क्लास लगा चुके हैं। इसके बाद कुछ तो चुप हो गए लेकिन कुछ पदाधिकारी सुधरने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। मुखिया द्वारा ही लाए गए ये लोग अब उनके लिए ही गले की हड्डी बन उनकी खिलाफत में लग गए हैं। ऐसे में सबको साथ रखने के फामूर्ूले पर चलने के कारण कार्रवाई करने में कमजोर पड़ने वाले बॉस के लिए स्थितियां नासूर बन चुकी हैं। दरअसल सच तो यह है कि इस महाभारत में दोनों पक्षों में कई दुर्योधन हैं जो यूपी क्रिकेट का ही चीरहरण कर रहे हैं।

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