कांव-कांव : बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले ….

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(व्यंग)

एक नामी क्रिकेट संघ का नेशनल हाईवे के करीब किसी जूनियर टीम के लिए ट्रायल चल रहा था। चयनकर्ताओं के अलावा संघ के कुछ ऑफिसियल भी वहां मौजूद थे। इसी बीच एक “नवाब साहब” की टमटम गेट से दाखिल होती है। वे सीधे लखनऊ से चले आ रहे थे सो थक चुके थे, थोड़ा एटीट्यूट जो हमेशा से ही उनके मिजाज में रहा है, भी नजर आ रहा था। अब जरा गुस्ताखी की इंतेहा देखिए कि गेट बंद था। न वहां पर कोई गार्ड मौजूद था, न ही कोई अन्य कर्मचारी। कांव-कांव जरूर सामने पेड़ पर चुपचाप बैठा यह नजारा ले रहा था। लेकिन टमटम की पों-पों घर्र-र्घर सुनने के बावजूद किसी ने उधर झांकने की जहमत भी नहीं उठाई। 10-15 मिनट गेट खुलने का इंतजार करने के बाद “नवाब साहब” ने यू टर्न मारा और वापस निकल लिए नवाबों की नगरी के लिए।

अब यह भी नहीं पता चला कि साहब आखिर आए किसलिए थे और तमतमाकर बिना काम निपटाए चले क्यों गए? वैसे इनकी जेब पर फर्क भी क्या पड़ना था, क्योंकि सब-कुछ तो दफ्तर झेल रहा है। यानि आना-जाना फ्री और यहां तक कि खाना भी फ्री। खैर हमें इससे क्या लेना-देना। मजेदार बात यह कि कनखियों से यह नजारा देखने के बावजूद वहां मौजूद स्टाफ ही पूरे एपिसोड से आंख मूंदे रहा। बाद में सब अनजान बन एक दूसरे से पूछते रहे कि सर आए थे कहां गए, कहां गए? इसको लेकर दो लाइनें याद आ रही हैं हालांकि वे कही किसी और ही सन्दर्भ में गईं होंगी लेकिन यहां उसकी दूसरी लाइन फिट बैठती है-

“उनके गेसू उनके रूखसार पर झूम गए,
शोर महफिल में उठा के चूम गए चूम गए।”

आप देहरी ही चूमने गए थे तो अलग बात है लेकिन इस छोटी सी लेकिन महत्वपूर्ण घटना का जिक्र इसलिए हो रहा है कि आखिर ऐसा क्यों किसी संघ के ऑफीसर या पदाधिकारी के साथ हुआ? सुना है कि अपनी सैलरी हजारों में बढ़वा लेना आपके सहयोगियों को थोड़ा अखर गया है। एक स्टाफ ने कहा कि जरा इनसे इनकी वर्किंग तो पूछ लीजिए कि यह करते क्या हैं? हालांकि यह बहुत बड़ा आरोप है, इसलिए इसमें पड़ना ठीक नहीं, क्योंकि यह संघ का आन्तरिक मामला है। लेकिन एक बात जरूर कहेंगे कि आप कैसे भी हों, जब आपकी सवारी को अंदर दाखिल होते देख लिया गया तो जो भी स्टाफ वहां मौजूद था उसे इतना बेमुरव्वत भी नहीं होना चाहिए था कि लखनऊ से आया उनका पदाधिकारी काफी देर तक गेट न खुलने की वजह से बाहर खड़ा रहे और आप अंदर बैठकर आपस में उसकी मौज लेते रहें।

क्यों करते ऐतबार किसी का इस ज़माने में…..
ये मिलते किसी और से हैं, होते किसी और के हैं।

लेकिन आप भी तो कम नहीं, अरे पैदल चलने के लिए तो रास्ता था ही। गाड़ी तो आपको ऑफिस के अंदर तक वैसे भी न लेकर जा पाती। कोई जरूरी काम था तो अपनी टमटम बाहर ही पार्क करके छोटे गेट से अंदर क्यों नहीं आ गए? ऐसे में आपको सोचना चाहिए कि सालों काम करने के बावजूद आपने अपने दफ्तर में कितनी लोग कमाए हैं। खैर हमें क्या, हमारा कांव-कांव बेवजह यह सारी दास्तां सुनाकर उड़न छू हो गया।

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