कानपुर, वो शहर नहीं जो नक्शे पर झाँककर देखा जाए, वो तो गली-कूचों की खाँसी, चाय की भाप, पान की पीक और बकैती की धूप-छांव से बना है। कानपुर एक एहसास है, एक लहजा है, और एक ऐसी संस्कृति है जो देखने में हल्की लगती है पर समझने में गहरी है।
भाषा नहीं, एक एक्सेंट है कनपुरिया
कानपुर की संस्कृति का पहला दरवाज़ा उसकी बोली है। यहां हिंदी नहीं बोली जाती, कनपुरिया हिंदी बोली जाती है — जिसमें ‘क्या हाल है’ की जगह ‘और’ होता है, और ‘कृपया’ की जगह ‘काहे, भाई नहीं हो’ से काम चल जाता है।
यहां गालियाँ अपशब्द नहीं, भावनाओं की गहराई होती हैं। “हरामी है तू!” एक दोस्ती की मुहर है, और “साले, सटक ले!” एक स्नेहभरा विदा।
बकैती: वह कला, जो सिर्फ़ कानपुर में जन्मी
कानपुर की गली हो या पार्क, पान की गुमटी हो या कॉलेज का गेट, वहाँ बैठकर घंटों “बकैती” चलती है। बकैती यानी बिना किसी प्रयोजन के दुनिया जहान की बातें करना — राजनीति, मोहब्बत, साइंस, क्रिकेट, और पड़ोस की भाभी — सबकुछ एक ही बातचीत में लपेट लेना।
बकैती में तर्क नहीं, ठसक होती है। कोई भी बात पूरे विश्वास के साथ बोले जाते हैं, चाहे वो कितनी भी झूठ क्यों न हो। यही आत्मविश्वास कानपुर की आत्मा है।
पान, तम्बाकू और चौधरी की चूना संस्कृति
कानपुर में किसी दुकान के बाहर खड़े लड़कों को देखकर ये मत समझना कि वो बेरोज़गार हैं। वो ‘करियर डिस्कशन’ कर रहे होते हैं, और ये डिस्कशन अक्सर शुरू होता है एक पान से — “भइया, एक चूना कट।”
पान यहाँ स्वाद नहीं, संवाद है। मुँह में पुड़िया दबा कर भी जो संवाद हो सकता है, वो केवल यहीं होता है। “राजश्री”, “तलब”, “केसर”, और फिर लोकल वर्ज़न “कानपुरी” — ये सब फैमिली की तरह होते हैं।
ट्रैजेडी का इलाज, और आइडेंटिटी का हिस्सा
राजू श्रीवास्तव हों या अन्नू अवस्थी, कानपुर से निकले ह्यूमरिस्ट सिर्फ़ जोकर नहीं, दर्शक को आइना दिखाने वाले लोग हैं। हँसी यहाँ हथियार है, जो सिस्टम पर भी चलती है और खुद की तकलीफ़ पर भी।
“कौनों भौकाल नहीं है यार!” — कहने वाला बंदा भी अंदर से बेहद गंभीर होता है, बस दिखावे में नहीं आता।
गंगा की तरह बहती संस्कृति
कानपुर की संस्कृति किसी एक जाति, धर्म, या वर्ग की नहीं है। सीसामऊ की संकरी गलियों से लेकर स्वरूप नगर के पॉश एरिया तक, कानपुर हर जगह एक जैसा नहीं, पर हर जगह कानपुरिया है।
यहाँ मंदिर की आरती और मस्जिद की अज़ान के बीच भी पान की दुकान पर बकैती जारी रहती है। सह-अस्तित्व कानपुर का जन्मजात गुण है।
आज का कानपुर: जड़ों से दूर, पर पूरी तरह अलग नहीं
आज का कानपुर मेट्रो देख रहा है, मॉल्स में घूम रहा है, बुलेट ट्रेन के सपने देख रहा है। लेकिन उसके DNA में अब भी वह भाषाई भौकाल, वह पैना ह्यूमर, और वह लहजे वाली ठसक है।
कभी-कभी वह अपने असली स्वरूप से दूर लगता है — ज़रा “जेन्टिल” बनने की कोशिश में — लेकिन सच्चा कानपुर अब भी ज़िंदा है… गंगा के किनारे, दर्शन पुरवा के चौराहों पर, और पुराने IIT रोड पर लगने वाली चाय की तश्तरी पर।
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कानपुर मरता नहीं, बस लुका-छुपी खेलता है
कानपुर कोई पुरानी शेरवानी नहीं जिसे वार्षिक समारोह पर निकाला जाए। कानपुर तो वो पुराना टी-शर्ट है, जिसे पहनकर आदमी खुद को सबसे असली महसूस करता है।
तो अगली बार जब कोई तुमसे पूछे – “कानपुर कैसा है?”, बस मुस्कुरा के कहना:
“भौकाल है भाई, बस दिखता नहीं सबको।”
फोटो- कानपुर की ऐतिहासिक टाट मिल के बंद गेट की तस्वीर है, जिसे कुछ महीनों पहले मैंने अपने मोबाइल से खींची थी। (अरविन्द त्रिपाठी की फेसबुक वॉल से)